हमारा देश भारत संस्कृतियों तथा सभ्यताओं का देश है , यदि भारत को सोने की चिड़िया कहें तो कहा जाएगा कि भारत के पंखो में तमाम पर्व -त्योहार उसकी स्वर्णिम गाथा तथा उसकी सभ्यता की सुंदरता में चार चाँद लगाते हैं । भारत में होली,दीपावली,दशहरा , नवरात्रि प्रमुख पर्व के रूप में जाने जाते हैं । वैसे तो सभी पर्व अपने आप में अहमियत रखते हैं । पर जब बात रंगो के महापर्व की होने लगे तो अतीत की तमाम होली रस्मअदायगी की यादें ज़ेहन में ताज़ा हो जाती हैं ।
होली आने के कुछ दिन पूर्व ही घरों में तीव्रता से तैयारियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं, छोटे-छोटे, नन्हें-मुन्हे बच्चे जहाँ अपने पिता से रंग, पिचकारी की ज़िद करने लगते हैं वहीं गृहणीयां गुझिया-गुलगुले के सामान के लिए । पर्व का उल्लास हर उम्र वर्ग में विशेषत होता है बच्चों की अलग तैयारी, बड़ों की अलग, महिलाओं की अलग तो बुज़ुर्ग घर बैठे ही आसपास के लोगों से मिलने की आस को संजोना शुरू कर देते हैं । होलिका दहन के दिन शाम को बड़े-बुज़ुर्ग तथा नौजवान सभी में होली के आगमन की तैयारी का जश्न साफ़ देखा जा सकता है । महिलाएँ प्रायः घर के सभी सदस्यों को बुकवा लगाकर सबके मैल छुड़ाकर होलिका दहन की तैयारी करती हैं । शाम को सभी घरों से लोग इकट्ठा होकर दहन स्थल पर पहुँच जाते हैं । दहन स्थल पर जाने से पूर्व हर व्यक्ति अपने-अपने घर से कुछ न कुछ दहन सामग्री लेकर दहन स्थल पर पहुँचता है । पर किशोर नौजवानों में अलग ही उत्साह होता है उनकी झुंड गाँव का चक्कर लगाते हुये हर घर से अपने साथियों को इकट्ठा करते, चौबीरी बोलते हुये बानर सेनाओं की भाँति ही खूब सारा दहन सामग्रियाँ लेकर स्थल पर पहुँचती हैं । पूर्व में तो ऐसा भी होता था, कि लोग पुराना छप्पर तथा किसी की पुवाल की खरही जिसके पास उस दिन घर का कोई न मिले तो यही बानर सेना उस छप्पर तथा खरही को दहन स्थल पर कब पहुँचा देती थी कि किसी को भनक भी नही लग पाता था । सुबह पता चलने पर गाँव भर के लिए मनोरंजन की यह सबसे ज़बरदस्त ख़बर भी होती थी । ख़ैर अब आगे बात करते हैं , होलिका दहन स्थल पर पहुँचने पर वहाँ की भी मस्ती का कोई अंदाज़ा नही, वहाँ हर कोई हर दूसरे के रिश्ते को लेकर चौबीरी (गारी) गाना शुरू कर दिया करते थे, दूसरा भी अपनी कसर नही छोड़ता वह भी जम चौबीरी गाता है । अब जलाने की बात आये तो कोई तैयार नही होता प्रायः यह सभी अभी भी होता है (हमारे गाँव में तो ऐसी मान्यता है की जो होलिका जलता है उसकी उम्र कम हो जाती है और उसकी शादी भी नही होती ) । हालाँकि मुझे लगता है शादी न होने वाली बात की मान्यता सिर्फ़ बच्चों को डराने के लिए उनकी माँ द्वारा दिया जाता है , जिससे उनमें डर बना रहे । अक्सर हमारे दहन का कार्य गाँव का सबसे साहसी व्यक्ति करता है , हमारे गाँव की भांशा में कहें तो रणुवा या कोई ऐसा जिसकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका हो । या कोई ऐसा जो ऊबकर घर जाने की जल्दबाज़ी में हो वही दहन शुरू करता है । अब दहन पश्चात सभी होलिका स्थल का चक्कर लगाकर जौ की बाली में गोबर की सामग्री लगाकर घर जाते हैं । मान्यता ऐसी है कि दहन से गया व्यक्ति उस रात न कुछ खा सकता है और न ही पानी पी सकता है ।
सुबह होली का शुभारम्भ नन्हें-मुन्हो से शुरू होती है । उनकी बालटी में रंगो का घोल और पिचकारी भरकर सबसे पहले घर के लोगों को ही भिगोने का कार्यक्रम शुरू हो जाता है । एक मायने में कहा जाय तो शगुन यही से शुरू होता है फिर धीरे -धीरे नौजवानों की झुंड निकलती है जो सबसे ज़्यादा होली का जश्न मनाती है । हर घर जाकर लोगों को रंगों से नहलाना, रंग लगाना, अबीर लगाना आदि शुरू होता है । फिर बड़ों की टोली ढोल-मजीरो के साथ फगुवा गानो के साथ चलता है जो हर घर जाकर जश्न उल्लासपूर्ण ढंग से मनाता है । शाम को लोग नहा-धोकर साफ़ कपड़े पहनकर अबीर लेकर बड़ों के मस्तक पर लगाकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । शाम का समय ही होली के समाप्ति की घोषणा होती है, अन्यथा यह महापर्व कब तक चले इसकी कोई सीमा नही ।